Pihu की कहानियां पार्ट 5: शिकारियों की तरह घात लगाकर करनी पड़ी पीहू की शूटिंग

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फ़िल्म पीहू के ट्रेलर ने रिलीज़ होते ही इंटरनेट पर खलबली मचा दी थी। फ़िल्म जल्द ही रिलीज होने वाली है ऐसे में हम आपके लिए लेकर आए हैं फिल्म पीहू से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियां। जो बता रहे हैं


फिल्म के... फ़िल्म पीहू के ट्रेलर ने रिलीज़ होते ही इंटरनेट पर खलबली मचा दी थी। फ़िल्म जल्द ही रिलीज होने वाली है ऐसे में हम आपके लिए लेकर आए हैं फिल्म पीहू से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियां।


जो बता रहे हैं फिल्म के डायरेक्टर विनोद कापड़ी। मैडम अभी सो रही हैं मैडम को पॉटी आ गई है  मैडम सुसु करने गई है मैडम का अभी मूड नहीं है  मैडम को अभी डॉल से खेलना है  मैडम ग़ुस्सा है  मैडम रो


रही है  33 दिन के शूट के दौरान हमारे DOP  योगेश जानी को इंतज़ार करते करते दो घंटे हो जाते थे और जब वो मुझ से पूछते थे कि शूट कब शुरू होगा तो अक्सर मेरे जवाब कुछ इसी तरह के ही होते थे। जब


हमने शूटिंग शुरू की थी तब पीहू की उम्र दो साल पाँच महीने हो चुकी थी।इ तने छोटे बच्चे के साथ आपको फ़िल्म शूट करना है तो धैर्य रखना होगा और ये बात टीम में सब को पता थी। आमतौर पर फ़िल्म की


शूटिंग में 12 घंटे की शिफ़्ट होती है, जिसमें 10 घंटे शूट चलता रहता है और चाय-लंच मिलाकर दो घंटे का ब्रेक होता है। हमारे केस में इसके बिलकुल उलटा था। हम पूरे दिन में मुश्किल से दो घंटे ही काम


कर पाते थे और दस घंटे का ब्रेक रहता था क्योंकि मैडम के मूड का क्या पता ?       पहले दिन तो ग़ज़ब ही हो गया। योगेश अपना कैमरा चैक कर रहे थे। शूटिंग शुरू होने से पहले की पूजा अभी हुई नहीं थी।


आर्ट की टीम ने घर को भी ठीक से सेट नहीं किया था। तभी मैंने महसूस किया कि पीहू सेट पर घूम रही है, बहुत ख़ुश है, काफी एक्टिव है और कुछ ऐसा शॉट अपने आप दे रही है , जिसकी हमें बाद में ज़रूरत


पड़ सकती है। बस फिर क्या था। मैंने धीरे से योगेश जी के कान में कह दिया। कैमरा रोल होने लगा और तक़रीबन एक घंटे तक रोल होता रहा और शूटिंग के दौरान ही आर्ट और सैटिंग की टीम चुपचाप अपना सामान


सेट में लगाते रहे। पीहू अक्सर हमें ऐसे ही चौंकाती थी। योगेश जी ने बाद में पूछा कि क्या कुछ काम का मिला? तो मैंने उन्हें बताया कि जब शिकार खुद ही फँस गया हो तो गोली चला देनी चाहिये। चाहे वो


लगे या ना लगे। सच में, पीहू के साथ हमारी शूटिंग शिकार और शिकारी की तरह ही थी। हम लाइट, कैमरा, साउंड का जाल लगा कर घंटो बैठे रहते थे और इंतज़ार करते रहते थे कि कब पीहू 'उस इलाके'


में आएगी जहाँ हमने जाल बिछा कर रखा हुआ था और जैसे ही पीहू दिखती थी .. सब एक दूसरे के कान में फुसफुसाते थे : शिकार आ रहा है .. कोई उसकी तरफ नहीं देखेगा।  कोई उसकी तरफ नहीं देखेगा: ये हमारी


शूटिंग का घोषित नियम था। मतलब ये कि पीहू सेट तक पहुँच गयी है तो कोई भी उसकी तरफ अगर देख भी लेता था तो वो उसी के साथ खेलने लग जाती थी। इसके बाद शूटिंग को कौन पूछ रहा है? इसलिए सबको बता दिया


गया था कि शिकार को भाव नहीं देना है। हमारी बच्ची कभी समझ ही नहीं पायी कि अभी कुछ देर तक उसके साथ खेलने वाले ये सारे लोग अब उसे इग्नोर क्यों कर रहे हैं ?        एक और ख़ास बात पीहू दुनिया की


पहली ऐसी फ़िल्म होगी, जिसमें डायरेक्टर को एक बार भी ना तो रोल साउंड .. रोल कैमरा .. एक्शन बोलने का मौक़ा मिला और ना ही कभी 'कट' बोलने का। सारा काम सिर्फ इशारों में ही होता था-शिकार


को देखकर और शिकार के जाते ही सब समझ जाते थे कि कैमरा कट हो गया है  क्या आप यकीन करेंगे कि 33 दिन में हमने 64 घंटे की शूटिंग की थी .. पूरे 64 घंटे .. जो मिलता था , हम शूट करते रहते थे और इसी


64 घंटे की फ़ुटेज से बनी है 100 मिनट की पीहू। ( जारी है )  अगले हिस्से में : जब पीहू खुद राइटर-डायरेक्टर बन गई (फिल्म के डायरेक्टर विनोद कापड़ी से लाइव हिन्दुस्तान की बातचीत पर आधारित...)