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हबीब कैफी लिफाफा हाथ में आते ही माधव ने जान लिया कि बैंक ने याद किया है। अपढ़ माधव को लिफाफे के भीतर वाले मजमून की जानकारी थी- बार-बार याद दिलाने के बावजूद किस्तें अदा नहीं की जा रही हैं। इस
तरह तो कर्ज बढ़ता ही जाएगा। बैंक आप को एक और चेतावनी देने के लिए मजबूर है… बैंक और मजबूर! मजबूरी तो असल में पिछले सत्तर बरसों से भी अधिक समय से मेरे इस परिवार के सामने है। माधव ने सोचा, कर्ज
पहले पिताजी के सिर था। वे असमय ही चले गए। कर्ज के कारण। समय पर सूद न चुका पाने की वजह से। तो क्या मेरे न रहने पर यही कर्ज किसना के सिर होगा? नियम कानून-कायदे का तकाजा तो यही है कि बाप का
कर्ज बेटा चुकाए। क्या इससे कभी मुक्ति नहीं मिलेगी? अचानक मोबाइल की घंटी बजी, तो माधव का ध्यान भंग हुआ। उसने जाना कि दयाकृष्ण ने याद किया है। माधव ने फौरन ही उसे सुना। कान से लगे फोन से
सुनाया जा रहा था- आज ही का दिन बोला था न तू ने! तेरे वादे के मुताबिक शाम को आ रहा हूं। असल पर जोर नहीं देता, लेकिन ब्याज तो लेकर मानूंगा। यह भी कोई बात हुई कि छह-छह महीने तक ब्याज चुकाने का
नाम ही न लिया जाए। हद है! ब्याज नहीं दिया तो तू जानता ही है… हां, जानता हूं। फोन कटा तो माधव ने जैसे अपने आप से कहा, तू एक आफत बन कर आएगा। जैसे कई-कई दफा आया है। आएगा तो तेरा सत्कार भी करना
पड़ेगा। हैसियत से कई गुना बढ़ कर आवभगत करनी पड़ेगी। जानता हूं कि जंवाई से भी बढ़ कर तेरा खयाल रखना होगा। खास खाना होगा। चिकन भुनवां। लेकिन इससे भी बढ़ कर पहले पीने का प्रबंध करना होगा। महंगी
अंगरेजी लानी होगी। ये सब तो जैसे-तैसे कर लूंगा, लेकिन चुकाने को सूद की रकम कहां से लाऊंगा? दया के तेवर से ही डर लगता है। बातें अब भी माधव के मन में चल रही थीं, देखने में वह डरावना नहीं है,
लेकिन पीने के बाद शैतान बन जाता है। रुपयों का तकाजा करता है तो बीच-बीच में मां-बहन को भी याद करता जाता है। पिछली दफा तो हद ही कर डाली थी उसने। थोड़ी विलायती जब गले से नीचे उतर गई तो तू-तड़ाक
करता हुआ मां-बहन की पर उतर आया था। खून के घूंट पीता हुआ चुपचाप मैं उसकी निगाहों के कमीनेपन को देख रहा था। असल में उसकी निगाहें लछमी पर गड़ने लगी थीं। मां रुक्मा द्वारा बनाए गए ताजा-ताजा
पकौड़ों की प्लेट लेकर घर भर की लाडली वहां आई थी। उसका कसूर बस इतना रहा कि कुछ क्षण वह वहीं खड़ी रह गई थी। बस, फिर क्या था? शैतान उस निहायत ही मासूम पर नजरें गड़ाने लगा। ऐसे में इच्छा हुई कि
कुल्हाड़ी उठाऊं और दया के बच्चे को काट कर रख दूं। लछमी वहां से जाने लगी तो कड़क आवाज में उसे मैंने लौट कर इधर न आने की हिदायत दी। फिर इसके बाद का वह मंजर और वातार्लाप- ‘इतना क्यों बिगड़ रहा है
उस पर तू?’ दूर जाती हुई लछमी की ओर एक नजर देखने के बाद उसने माधव को मुखातिब किया, ‘मेरा यहां आना तुझे सुहाया नहीं क्या?’ ‘नहीं दया भाई, ऐसी कोई बात नहीं है।’ माधव ने कहा, ‘बात असल में यह है
कि मुझे आपके पैसों की चिंता लगी है। इसी से मगज में टेंशन बन गया।’ ‘क्या बोला तू?’ दारू की गिलास एक ओर सरका कर दया ने उसे घूरा, ‘इसका मतलब ये तो नहीं कि सूद के पैसे नहीं दे रहा है तू?’
‘नहीं-नहीं, वो बात नहीं है।’ माधव ने फीकी हंसी के साथ कहा, ‘आप पहले खा-पीकर आराम कर लें… सूद आपको मिल जाएगा।’ ‘नहीं मिला तो तू मुझे जानता है!…’ गिलास उसने फिर से उठा लिया, ‘बिगाड़ होते देर
नहीं लगेगी, यह जान लेना।’ ‘बरोबर-बरोबर!’ माधव ने आजिजी से कहा, ‘आपका सुभाव मैं जानता तो हूं। पर आप थोड़ा धीरज घरें।’ ‘नहीं, तू अभी का अभी साफ-साफ बोल मिक सूद का पैसा दे रहा है कि नहीं?’ गिलास
की बची दारू उसने हलक में उंड़ेल ली। ‘बोला ना कि आप खाली हाथ नहीं जाएंगे।’ उसने दया के आगे हाथ जोड़े, ‘कसम खाने की जगह नहीं है। वादा कर रहा हूं आपसे!’ ‘तो ठीक है।’ गिलास में दारू डालने के बाद
उसने पानी का जग उठाते हुए कहा, ‘अपनी बात पर कायम रहना। मेरा भरोसा मत तोड़ना।’ ‘ऐसा कभी नहीं होगा, दया भाई।’ माधव ने कहा, ‘आपका भरोसा तोड़ने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है।’ संतुष्ट होकर दया
पीने लगा। इसके साथ ही वह सिगरेट के कश भी खींचे जा रहा था। माधव इधर खामोश चिंता में डूबा था। उस वक्त तो दया को वह किसी तरह टालने में कामयाब हो गया था। लेकिन आज उसे टाल देना संभव न होगा। कारण
कि स्थिति उस दिन से अलग और गंभीर है। इस वक्त भी उसकी वही चिंता थी- सूद का पैसा कहां से आए? घर में जो कुछ भी आटे-दाल के लिए रखा था, वह सब तो इस पिशाच की खातिरदारी में खर्च हो चुका है। यहां
कभी जिंदगी में अंगरेजी चखी तक नहीं। देसी से ही काम चलाया है होली-दीवाली के अवसर पर। सिगरेट का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बीड़ी ही फूंकी है उम्र भर। कभी-कभी तो इसका भी जुगाड़ नहीं होता। ऐसे में
तलब मिटाने के लिए इधर-उधर देखना पड़ जाता है। मुर्गी-मटन का मामला कहां कुछ बैठता है? बच्चों के बहुत जिद करने पर घर पर कभी थोड़ा मांस-मुर्गा पकता भी है तो पतली दाल जैसा शोरबा रखना पड़ता है।
मुश्किल से मांस का एक-एक कतला हाथ लगता है। रुक्मा तो अक्सर इससे भी वंचित रह जाती है। और एक यह दया का बच्चा है, रोज ही दारू-मांस भकोसने वाला! क्यों न मस्ती का जीवन जिएगा ये? जगह-जगह सूद वसूल
करता है। मुझसे कई बरस बड़ा है, लेकिन खानपान और आराम के जीवन के कारण एकदम लाल चेहरा। हंसने या क्रोध करने पर यही चेहरा और अधिक लाल हो उठता है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इसके बदन का सारा खून और
चेहरे की ललाई हम जैसे लोगों के कारण ही है। ब्याज की शक्ल में यह लोगों का खून ही तो चूसता है जोंक की तरह। पीने के बाद खाने से फारिग होकर दया ने गुनूदगी के आलम में एक बार फिर सूद की रकम का
तकाजा कर डाला, तो माधव सकते में आ गया। उसने तो सोचा था कि खासी मात्रा में अंगरेजी गटकने और भरपेट मनपसंद भोजन कर लेने के बाद वह खाट पर लगे बिस्तर पर सो रहेगा। लेकिन भारी हो आई आवाज में किए गए
तकाजे ने उसे बेचैन कर दिया। अब? दया के स्वर ने उसे ज्यादा कुछ सोचने का अवसर नहीं दिया। उसने कहा, ‘सुना तूने कि नहीं?’ ‘सुना दया भाई और समझा भी है मैंने।’ माधव ने बिस्तर पर पड़े दया के
पायताने खड़े-खड़े कहा। ‘क्या समझा तू?’ डूबते स्वर में उसने पूछा। ‘यही कि सूद की रकम आपको अभी और इसी समय चाहिए…’ माधव ने अपने स्थान से कहा। ‘बरोबर समझा है तू…’ इस तरह उसकी आवाज डूब गई और नशे की
हालत में वह नींद की आगोश में चला गया। दया को नींद में गाफिल होते देखा तो माधव को लगा कि उसे राहत मिल गई है। लेकिन यह राहत ज्यादा से ज्यादा रात भर के लिए थी। सुबह जब यह पिशाच जागेगा, तो?
खयाली मंजर और माहौल की कल्पना से इस वक्त वह बचे रहना चाहता था। तो फिर क्या किया जाए आखिर? कोई उपाय? उपाय है तो। वही बरसों पुराना सुझाव कि मंगले, दीने और दीगर लोगों की तरह खेत-जमीन बेच कर
गांव ही छोड़ दिया जाए। ऐसा कर लेने पर सबसे पहले विकराल आफत से छुटकारा मिल जाएगा। कर्ज और ब्याज से मुक्ति मिलेगी। वहां शहर में ठाठ होंगे। जीवन ही बदल जाएगा पूरी तरह से। लेकिन क्या यह संभव है?
ठहर कर माधव ने हकीकत पर ध्यान दिया, जमीन और खेत बेचने वालों ने ऐसा ही तो सोचा था। मंगले, दीने और दूसरे लोगों को फौरी तौर पर राहत मिल तो गई थी। कर्ज और सूद से मुक्ति भी मिली थी। शुरू-शुरू में
ऐसे तमाम लोगों के ठाठ हो चले थे। खानपान, रहन-सहन और उठने-बैठने तक में परिवर्तन आ गया था। ऐसा लगने लगा था कि इनकी जिंदगियां ही बदल गई हैं। लेकिन वास्तविकता जल्दी ही सामने आ गई। अनुभवहीनता के
कारण इन्हें हर मोर्चे पर घाटा झेलना पड़ा। जिसने व्यापार शुरू किया उसे घाटा हुआ। शहर में जा बसने वालों को वहां की फिजा और लोग रास नहीं आए। सारे ही ठाठ-बाट वक्ती और नकली साबित हुए। और आखिरकार
लौट के बुद्धू घर को आए तो बहुत पछताए। जमीन-खेत न रहने और पूंजी खत्म हो जाने से ये तमाम लोग दो कौड़ी के अस्थायी दिहाड़ी मजूर बन कर रह गए। कइयों को तो इससे भी वंचित रहना पड़ गया। ऐसा? ना बाबा ना।
जमीन और खेत हैं तो पैर टिकाने को जगह भी है। इनके रहते आस तो जिंदा है। कभी तो दिन फिरेंगे। अच्छे दिन आएंगे। रात आधी बीत चली थी। गुलाबी ठंड ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। दया गहरी नींद और नशे
में सीधा सोया हुआ था। वह लयबद्ध खर्रांटे खींच रहा था। माधो की आंखों से नींद पूरी तरह से गायब थी। वास्तव में वह उपाय की तलाश में था। खाली पेट होने के बावजूद उसे भूख का कतई एहसास नहीं था।
इसकी बड़ी वजह थी चिंता। सुबह की चिंता ने उसे एक बार फिर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। वह सोचने लगा, कुछ समय पहले हम किसानों के कर्जमाफी की बात चली तो थी। सुन कर अच्छा लगा था। लगना ही था। सरकारी
बैंक के कर्जे की माफी। लेकिन फिर बाद में उसका क्या हुआ, किसी को कुछ पता नहीं। इसके बारे में अब कोई बात भी नहीं करता। चुनावी हवा का असर था। चुनाव गए और बात हवा-हवाई हुई। लेकिन असल बात तो दया
जैसे सूदखोरों की है। इसका कोई इलाज है कि नहीं? पौ बारह तो उन लोगों की है, जिनके यहां कुएं और ट्यूबवेल हैं। ऐसों की हमेशा ही पांचों अंगुलियां घी में रहती हैं। पानी की इफरात होने से तीन-तीन
फसलें लेते हैं ये लोग। तिलहन और तरकारियां भी इनके यहां खूब पैदा होती हैं। कुछ भी बेचने के लिए इन्हें कहीं भी जाना नहीं पड़ता। खरीदने वाले खुद इनके द्वारे आते हैं। ठाठ हैं इन लोगों के हमेशा से
ही। बड़े अफसर, नेता, बैंक वाले और सूदखोरों तक का इनके यहां आना-जाना लगा रहता है। पर इधर तो अधिकांश की खेती का दारोमदार बरसात पर ही रहता है। समय पर माकूल वर्षा हुई, तो खेत लहलहा उठते हैं। ऐसे
में समर्थन मूल्य के लिए तरसना भी पड़ जाता है। इन हालात में शहर में गली-गली घूम कर हजारों मुसीबतें झेलने पड़ती हैं। किसान अनाज लिए घूमते हैं। लहसुन-प्याज और टमाटर भी फेरी वालों की तरह लिए
फिरते हैं। फिर भी कहां पूरा पड़ता है इनका? लेकिन इसके विपरीत बरसात कम या बिलकुल ही न होने की दशा में तो कहर ही टूट पड़ता है। थोड़ी बहुत जमा पूंजी सबसे पहले खत्म होती है। घर की जरूरतें पूरी करने
के लिए दया जैसे सूदखोरों की तरफ देखना पड़ता है। ऐसे में कर्ज पर कर्ज और सूद-दर-सूद दम ही निकाल डालता है। ऐसा इस दफा भी कइयों के साथ हुआ है। मेरे साथ भी हुआ है। इसीलिए तो दया का बच्चा खा-पीकर
यहां आज पसरा पड़ा है। सुबह उठेगा… सुबह? विचारों की दुनिया में विचरते हुए माधव को सुबह का खयाल आया तो वह अचानक ही भयभीत हो उठा। क्या होगा? सूरज के उजाले में काल्पनिक दृश्य सोचता हुआ वह लरज
उठा- जहर खाने को भी पैसे नहीं हैं तेरे पास, तो क्यों बुलाया था मुझे अपने यहां? एक नंबर का झूठा और मक्कार है तू! तेरा पूरा परिवार ही फरेबी है! क्या सोचा था तूने कि दो घूंट दारू और एक टेम का
खाना खाकर मैं चुपचाप चला जाऊंगा यहां से? गलत सोचा था तूने! आज मैं यहां से सूद लिए बिना टस से मस नहीं होने वाला हूं। अब तू खुद ही बिक या फिर अपने घर वालों को बेच आ! कुछ भी कर के रुपया ला!…
शर्म आनी चाहिए तुझे!… हां, शर्म आती तो है और खयाल भी आता है कि इससे भी बुरा हो सकता है! इससे भी बुरा क्या?… मुंह अंधेरे के बावजूद मंजर सामने और साफ है- नींद से जाग चुका सूदखोर दयाकृष्ण देख
रहा है, उधर कोई बीस कदम की दूरी पर पेड़ की डाल पर साफे से लटका शरीर एकदम स्थिर है। यह माधव है! उसी का मुर्दा शरीर! नहीं, नहीं चाहिए अपनी ही आत्महत्या का यह दृश्य मुझे। बहुत हो चुकी
आत्महत्याएं। फिर इसके बाद किस-किसको मुक्ति मिली है इस दैत्य कर्ज से? हकीकत तो यह है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ता ही चला जाता है यह कर्ज। समाधान इसका आत्महत्या नहीं, जीवन है। जीवन है तो सब कुछ है।
इसलिए जीवित रहना जरूरी है। और समाधान होने तक मैं जिंदा रहूंगा।