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विनय जायसवाल संसद के दोनों सदनों से संविधान के 123 वें संशोधन विधेयक-2017 के पास होने के साथ राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने का रास्ता साफ हो गया है। इसके लिए संविधान में
338-बी और 342-ए जैसे दो नए अनुच्छेद जोड़े जाएंगे। इन अनुच्छेदों के जुड़ने से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े तबके के लोगों के लिए 1993 में बनाए गए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को एक स्वायत्त
निकाय का दर्जा मिल जाएगा। आयोग में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और महिला सदस्य समेत दो अन्य सदस्य भी होंगे। इनकी नियुक्ति, पदावधि और सेवा शर्तें नियमानुसार राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित होंगी। आयोग
को वे सभी अधिकार और शक्तियां प्रदान की गई हैं जो अनुसूचित जाति आयोग एवं अनुसूचित जनजाति आयोग को हासिल हैं। इससे यह संस्था केवल सिफारिश करने से आगे बढ़ कर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े
व्यक्ति की शिकायत पर संज्ञान लेते हुए, देश के किसी भी भाग में न केवल नोटिस और सम्मन जारी कर सकेगी, बल्कि एक सुनवाई न्यायालय की तरह काम भी कर सकेगी। इस आयोग को पिछड़े वर्गों के लिए बनाए गए
सुरक्षा उपायों से संबंधित मामलों की जांच और निगरानी करने का अधिकार होगा। इससे सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े व्यक्ति की शिकायतों का प्रभावी और तेज गति से निपटारा करने में सुविधा होगी। अब
राज्य किसी खास जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची में डालने के लिए सीधे केंद्र या आयोग के पास सिफारिश भेज सकेंगे। इसके लिए उन्हें राज्यपाल से परामर्श की आवश्यकता नहीं होगी। राज्य अब अपनी
ओबीसी सूची के लिए स्वतंत्र होंगे। इस आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग पर से एक नख और दंत विहीन संस्था होने का धब्बा हट जाएगा। दरअसल, अभी तक
पिछड़े वर्ग की शिकायतों का निवारण अनुच्छेद 338 के तहत अनुसूचित जाति आयोग के लिए बने प्रावधानों के अनुसार किया जाता है। यही कारण था कि केंद्र, राज्य और सार्वजनिक उपक्रमों की भर्ती प्रक्रिया के
साक्षात्कार के दौरान अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व भी अनुसूचित जाति का प्रतिनिधि ही करता था। लेकिन अब यह आयोग अपनी स्वतंत्र और नियामक भूमिका निर्धारित कर सकेगा। इस आयोग को बने करीब पच्चीस
साल हो गए, लेकिन इसे शक्तियां आज मिली हैं। उम्मीद की जा सकती है कि यह आयोग देश भर में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में नियमित और नए तरीके से रोज किए जा रहे भेदभाव और उनके लिए बनाए गए
प्रावधानों को लागू करने में की जा रही तरह-तरह की अड़ंगेबाजी को रोकने में मददगार साबित होगा। पिछड़ा वर्ग आयोग को मजबूत बनाने के साथ ही आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि देश के सर्वोच्च और उच्च
न्यायालयों में पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए न्यायाधीश के पदों में आरक्षण की व्यवस्था की जाए। पिछड़े वर्ग से जुड़े मामलों में बनने वाले किसी भी पीठ में कम से कम एक तिहाई न्यायाधीश पिछड़े तबके से
होने चाहिए। तभी इस तरह के किसी आयोग को बनाने का असली मकसद कामयाब हो सकता है। मंडल आयोग ने 1931 की जातिवार जनगणना के आधार पर ही 1980 में राष्ट्रपति को रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें ओबीसी की कुल
तीन हजार सात सौ तियालीस जातियों की गणना की गई थी और इनकी जनसंख्या को भारत की कुल आबादी का बावन फीसद पाया था। इसके बाद से भारत में कोई भी जातिवार जनगणना नहीं हुई है, बावजूद इसके कि 1953 में
गठित पहले अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग- काका कालेलकर आयोग ने 1961 से जातिवार जनगणना करने का सुझाव दिया था। इस बात को सात से भी अधिक दशक बीत चुके हैं, लेकिन आज तक जातिवार आधार पर जनगणना नहीं हुई।
हालांकि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने आधार वर्ष 1999 के आधार पर छत्तीस फीसद और राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन ने 2000 आधार वर्ष पर इसे करीब चौंतीस फीसद पाया है। इसमें मुसलिम ओबीसी
की संख्या शामिल नहीं हैं। लेकिन व्यापक जनगणना के बिना ऐसे सर्वे के आधार पर कोई सांविधिक निर्णय नहीं लिया जा सकता। आज ओबीसी जातियों की संख्या बढ़ कर पांच हजार से ऊपर जा चुकी है। देश के
विभिन्न हिस्सों में कई जातियां आरक्षण के लिए हिंसक आंदोलन तक कर रही हैं। हरियाणा में जाट, गुजरात में पटेल-पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर और महाराष्ट्र में मराठा समेत और कई जातियां आरक्षण की
मांग कर रही हैं। ये ऐसी जातियां हैं जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े मानकों पर खरी नहीं उतरती हैं। दरअसल, ये जातियां आरक्षण का विरोध करने वाली जातियां हैं, जो इस मकसद से आरक्षण की मांग कर
रही हैं, जिससे या तो आरक्षण खत्म हो जाए या फिर इसका सामाजिक और शैक्षणिक आधार बदल कर आर्थिक हो जाए। ये जातियां आए दिन उत्पाती आंदोलन की धमकी देती रहती हैं। ऐसे में सरकार के लिए बड़ी मुश्किल
यह हो जाती है कि वह इनसे कैसे निपटे? सरकार का यह प्रयास ऐसे ही आंदोलनकारियों से निपटने का है, क्योंकि किस जाति को केंद्र में आरक्षण मिलेगा, यह सिफारिश राज्य सरकार ही करेगी। इसके साथ ही
आरक्षण सूची में नई जातियों को शामिल करने की पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश संसद की स्वीकृति के अधीन होगी। इससे सरकार पर पड़ने वाले राजनीतिक दबाव में निश्चित रूप से भारी कमी आएगी और सरकार इन
जातियों के गुस्से से शिकार होने से बच जाएगी कि सरकार इन्हें आरक्षण नहीं देना चाहती है। संविधान में केवल सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण की बात है। ऐसे में क्रीमीलेयर आधार तय
करने से ओबीसी के एक बहुत बड़े तबके का सामाजिक और शैक्षणिक विकास अवरुद्ध होता है। इसका समाधान यह हो सकता है कि मौजूदा पिछड़ा वर्ग आयोग की सलाह मानते हुए क्रीमीलेयर की सीमा को बढ़ा कर पंद्रह लाख
रुपए वार्षिक कर दिया जाए और ओबीसी समुदाय को पिछड़ा, अधिक पिछड़ा और अति-पिछड़ा में बांट कर उनकी जनसंख्या के आधार पर उन्हें आरक्षण दिया जाए। इसके साथ ही सरकार को चाहिए कि सरकारी शैक्षिक संस्थानों
और सरकारी रोजगार में सुनिश्चित करे ताकि इस बात को लेकर कोई अनियमितता न हो कि सामान्य वर्ग की वरीयता सूची में स्थान पाने वाले ओबीसी की गणना ओबीसी कोटे में हो। सरकार को निजी क्षेत्रों में
आरक्षण की व्यवस्था लागू करने की अपनी ही घोषणा पर भी अमल करना है। निश्चित तौर पर समाज को बराबरी पर लाने के लिए सबको बराबरी का अवसर मिलना चाहिए, लेकिन इससे पहले यह भी तय करना जरूरी है कि सब
बराबर के प्लेटफार्म पर खड़े हैं। भारत ही नहीं, दुनिया के दूसरे देशों में भी, जिनका भारत बहुत से मामलों में अनुसरण करता है, आरक्षण की व्यवस्था लागू है। उदाहरण के तौर पर अमेरिका में सुविधाहीन
प्रजातियों, नृजातियों और महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। इसी तरह इंग्लैंड, जापान, चीन, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, स्वीडन, बांग्लादेश, नेपाल इत्यादि अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक
बनावट के अनुसार आरक्षण देते हैं। भारत समेत दुनिया भर के कई विकासशील देशों के नागरिक विकसित देशों में पढ़ने के लिए जो अवसर पाते हैं, वह भी नस्लीय भेदभाव और वंचना के आधार पर आरक्षण के तौर पर ही
मिलता है। इसलिए भारत अपने वंचित मानव संसाधन को काबिल बना कर, उन्हें देश में समानता का प्लेटफार्म पर खड़ा करेगा तभी ‘सबका साथ और सबका विकास’ के सपने को सही मायने में साकार किया जा सकता है।