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कोई माने या न माने लेकिन बचपन में हम सभी लोग किसी न किसी रूप में कलाकार होते हैं। घर की दीवारों पर, कॉपी के पन्नों पर, घर-आंगन में लगी फर्शियों या मुहल्ले की डामर वाली काली सड़कों पर पेंसिल,
चॉक या कोयले से हम सबने आड़ी-तिरछी लकीरें अवश्य उकेरी होंगी। कभी मुस्कुराते, कभी रोते चेहरे बनाए होंगे। कम से कम एक चित्र तो जरूर ही हर बच्चा अपने बचपन के दिनों में बनाता है, जिसमें दो पहाड़ों
के बीच से सूरज निकल रहा होता है, नदी होती है, नदी में नाव और किनारे पर एक झोपड़ी, पास में एक खजूर का पेड़ और आकाश में कुछ पक्षी उड़ रहे होते हैं। कभी-कभी बस यों ही स्कूल से पैदल घर लौटने के
उत्साह में अपने कदमों को अपनी ही धुन पर आगे-पीछे गोल घुमाते हुए नृत्य की खूबसूरत मुद्रा बनाने लगते हैं। कभी स्कूल की कोई कविता या गीत गुनगुनाने लगते हैं। कभी मजे में कोई झूठी या काल्पनिक
कहानी या कोई तुकबंदी गढ़ कर दोस्तों के बीच रोब झाड़ने लगते हैं। क्या कुछ नहीं कर रहे होते हम बचपन में और हमारे आसपास के लोग हमारी छोटी-छोटी हरकतों पर मंत्रमुग्ध हो जाते और विश्वास दिला देते
हैं कि हम अद्भुत हैं और कुछ बहुत अच्छा कर रहे हैं। हालांकि कुछ जागरूक माता-पिता बच्चों में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे विकसित करने का प्रयास भी करते हैं, लेकिन ज्यादातर नन्हे कलाकारों का फन
परिवार में अभावों और जरूरतों के बोझ तले दब कर बचपन में ही घुटने टेक देता है, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जहां अभाव की उपस्थिति ही मानो उनके जुनून को और रफ्तार दे देती है। इन्हें ही शायद ‘धूल
में खिला फूल’ कहा जाता है। किसी भी व्यक्ति के भीतर मौजूद यही कलाकार एक तरह से उसकी एक ऐसी पूरक ऊर्जा है जो उसे हर तरह की परिस्थिति में संघर्षों से मुकाबला करने की शक्ति देने का काम करती है।
काम को खूबसूरत तरीके से करने का हुनर और परिणाम को बेहतर बनाने में सहयोग करती है। जरूरी नहीं कि हर बच्चा बड़ा होकर एक महान और सफल कलाकार ही बने, पर यह बहुत जरूरी है कि हम उसे ऐसा वातावरण
उपलब्ध कराएं कि वह कलम, चाक या कोयले से ही सही, मगर मनचाहे चित्र बनाता रहे। स्कूल से लौटते हुए खुशी के गीत गाता चले… पैर थिरकते रहें… हर दिन कुछ नया रचने की कोशिश करे। जो निरर्थक-सी दिखने
वाली चीजें हैं, असल में जीवन का सबसे बड़ा अर्थ उनके भीतर छिपा होता है। अपने रोजमर्रा के काम में भी अगर अपने भीतर के कलाकार को हम प्रवेश करने की अनुमति देते रहेंगे तो यकीनन वह काम बचपन की तरह
ही अद्भुत तो होगा ही, साथ ही थकावट और ऊब से मुक्ति देकर काम को बहुत खूबसूरत बनाने का माध्यम भी बन जाएगा। महान चित्रकार पाब्लो पिकासो ने कहा है कि ‘सभी बच्चे कलाकार होते हैं। समस्या यह है कि
बड़े होने के बाद भी कैसे कलाकार बने रहा जाए’! इस छोटे-से वाक्य में एक बड़ी चिंता और गहन चिंतन है। हमारे जीवन की प्राथमिकताओं में असल में कला बहुत निचले स्तर पर आती है, क्योंकि बड़े से बड़े
कलाकार पर भी अपनी और अपने परिवार की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति सर्वोपरि हो जाती है। कोई बिरला ही होता है जो अपनी कला से अर्जित धन से परिवार या अपना पेट भर पाता है। उस मुकाम तक पहुंचने का
रास्ता काफी संघर्षों से भरा होता है। इसलिए यह जरूरी है कि या तो हमने आर्थिक रूप से संपन्न किसी समझदार परिवार में जन्म लिया हो या फिर हमारे पास जीवनयापन के लिए कोई और रोजगार भी उपलब्ध हो,
ताकि हम अपने भीतर के कलाकार और कला को जिंदा रख सकें। कलाकार व्यक्ति का मन बहुत संवेदनशील होता है। निराशा और असफलता में वह बहुत बेचैन और अपने आप को काफी असहज महसूस करने लगता है। जबकि वह एक
रचनात्मक और महत्त्वपूर्ण काम से जुड़ कर दुनिया को परोक्ष रूप से खूबसूरत बनाने में संलग्न होता है। कितना अच्छा हो अगर रोजगार के इन गैर-पारंपरिक और अलग तरह के क्षेत्रों को भी बढ़ावा दिया जाए!
प्रतिभावान लोगों को सही मंच और मेहनताना मिले। कौशल विकास के साथ-साथ सरकारें ‘ललित और रचनात्मक कला विकास’ पर भी योजनाएं बनाएं तो शायद बेरोजगारी के बड़े संकट को कुछ हद तक इस तरह भी कम करने में
मदद मिल सके। ऐसे में आजीविका का चुनाव हर व्यक्ति अपने कौशल को देख कर करेगा। किसी एक व्यवसाय पर बढ़ते बोझ और भेड़ चाल पर भी लगाम लगाई जा सकेगी। हालांकि ऐसी कई संस्थाएं हैं जो समय-समय पर
कार्यशाला आदि के जरिए बच्चों और युवाओं की प्रतिभा को पहचान कर प्रोत्साहित करती रहती हैं लेकिन जब तक इस तरह कलाओं को केवल ‘हॉबी’ यानी शौक के रूप में देखा जाएगा तब तक इसका पूरा लाभ नहीं मिल
सकता। कला और कलाकार को नागरिक जीवन की मुख्यधारा में ज्यादा घनिष्ठता से लाना शायद एक सही पहल होगी।