समाज: प्यार से कैसा इनकार

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मानव मन की सबसे कोमल भावनाओं में से एक है प्रेम। देवता, दानव, पशु, पक्षी कौन है, जिसने इसे महसूस न किया हो। कहा तो यह भी जाता है कि मनुष्य में देवत्व के गुण भी प्रेम के कारण ही उत्पन्न होते


हैं। पर विडंबना है कि जिस प्रेम की महिमा का बखान करते शास्त्र थकते नहीं, वही प्रेम हमेशा वर्जित फल रहा है। प्रेम के माहात्म्य का ज्ञान है, पर प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है। समाज की पूरी


कोशिश होती है कि किसी भी तरह से प्रेम होने न पाए। पर प्रेम किसी चोर की तरह न जाने कब मन में प्रवेश कर जाता है। प्रेम होते ही वे घर में प्रेम अपराधी घोषित हो जाते हैं। कितने ही किस्से सुनते


हैं इन प्रेम अपराधिनों के आत्महत्या करने के, ऑनर किलिंग के नाम पर अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा मार दिए जाने के या फिर घर से भाग जाने के, जिन्हें जिंदगी भर अपने मूल परिवार से दुबारा मिलने


का मौका ही नहीं मिलता। उनका एक हाथ हमेशा खाली ही रह जाता है, और एक कसक के साथ जिंदगी आगे बढ़ जाती है । विश्व इतिहास कहता है कि यह किस्सा हमारे देश का ही नहीं है। हर देश का रहा है। प्रेम को


रोकने के प्रयास हर देश में रहे हैं। विद्रोह भी वहीं पनपता है जहां किसी अभिव्यक्ति को दबाया जाए। ऐसे ही एक विद्रोह का नाम है ‘संत वैलेंटाइन’, जिसे आज हम ‘प्रेम दिवस’ के रूप में जानते हैं।


इतिहास इसे संत वैलेंटाइन से जोड़ कर देखता है, जिसका वर्णन 1260 में संकलित की गई ‘आॅरिया आॅफ जैकोबस डी वॉरिजिन’ में मिलता है। इसके अनुसार रोम में तीसरी शताब्दी में सम्राट क्लॉडियस का शासन था।


उसके अनुसार विवाह करने से पुरुषों की शक्ति और बुद्धि कमजोर हो जाती है। उसने आज्ञा जारी की कि उसका कोई सैन्य अधिकारी विवाह नहीं करेगा। संत वैलेंटाइन ने इस क्रूर आदेश का विरोध किया। उन्हीं के


आह्वान पर कई सैनिकों और अधिकारियों ने विवाह किए। आखिरकार क्लॉडियस ने संत वैलेंटाइन को 14 फरवरी, 1269 को फांसी पर चढ़वा दिया। तभी से इस दिन को प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है। जितनी


तीव्रता से ‘प्रेम दिवस’ का विरोध हुआ, उतनी ही तीव्रता से यह दिन विश्व भर में प्रसिद्ध हुआ। आज हमारे देश के भी छोटे-बड़े हर शहर में इसे मनाया जाता है। फिर भी समाज के एक बड़े वर्ग द्वारा इसे


नकारा जाता है। विरोध प्रदर्शन होते हैं। नारेबाजी होती है। सवाल है कि ऐसा क्यों होता है? प्रेम हमारी संस्कृति में कभी वर्जित विषय नहीं रहा है। स्वयंवर हमारी परंपरा का हिस्सा रहा है। खजुराहो


और अन्य मंदिरों में प्रणय की मुद्राएं चित्रित हैं। निस्संतान स्त्रियों को ‘निग्रह’ का अधिकार प्राप्त था। लगभग इसी फरवरी के महीने में पूरे माह चलने वाला वसंत उत्सव स्वीकार्य रहा है। कामदेव के


वाण और प्रेम के उल्लास से हम अछूते तो नहीं हैं। फाग में स्त्रियों-पुरुषों का एक-दूसरे को अपने रंग में रंगना स्वीकार्य रहा है। फिर विरोध किसलिए? कहीं आयातित का हौव्वा खड़ा करते हुए हम अपनी ही


पुरातन संस्कृति के विरोध में तो नहीं खड़े हो गए हैं? या हम अपनी संस्कृति को भूल ही गए हैं और समाज द्वारा धीरे-धीरे आरोपित किए हुए बंधनों को ही संस्कृति मान लिया है! कुछ लोगों के अनुसार मामला


विवाह की शुचिता का है। विवाह से इतर प्रेम स्वीकार नहीं है। पर क्या विवाह के बाद प्रेम नहीं होता? क्या यह बात दावे के साथ कही जा सकती है? विवाह के बाद चोरी-छिपे निभाए गए रिश्तों के आंकड़े


किसी से छिपे नहीं हैं। विवाह के बाद ‘एक्स्ट्रा मैरीइटल अफेयर्स’ पनप रहे हैं। विवाह में शक और जासूसी तो चलती ही रहती है। अभी हाल में ‘एक्स्ट्रा मैरीइटल अफेयर्स’ नाम की विश्व प्रसिद्ध डेटिंग


साइट ने बंगलुरु में अपनी साइट लांच की। चंद दिनों के अंदर आठ लाख लोग इससे जुड़े। क्या ये आयातित लोग हैं? युवाओं पर दोष लगाते समय क्या बड़े अपने गिरेबान में झांक कर देखते हैं? कुछ लोग तर्क देते


हैं कि किसका प्यार टिकता है, यह तो मौजमस्ती का बहाना है। जिनको प्रेम होता है उसकी परणति शादी में हो ही जाती है। दरअसल, हम इस विषय में बात करना नहीं पसंद करते कि कितने जोड़े विवाह संस्था के


अंदर घुट रहे हैं, क्योंकि विवाह अपने मन से खिला फूल नहीं, समाज और परिवार के बड़ों द्वारा थोपा हुआ था। वहां दोनों अलग कमरों में सोते हैं। संवाद शून्यता है, पर विवाह बना हुआ है, इसलिए हम उसे


प्रेम समझने की भूल करते हैं। कई बार विवाह चलने का कारण यह होता था कि समाज द्वारा निर्धारित था कि पति बाहर के काम संभाले और पत्नी घर के। जिंदगी की गाड़ी सुगमता से चलाने के लिए दोनों एक-दूसरे


की आवश्यक मजबूरी थे। पर आज जब स्त्री भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र है तो विवाह वही सफल हैं जहां संवाद बना हुआ है। आपसी जुड़ाव है। अगर आप आज के समय की हकीकत देखेंगे तो सच्चाई यह है कि माता-पिता


अपने बच्चों का विवाह तय कर देते हैं, फिर उनसे आपस में खूब बात करने, मिलने की आजादी देते हैं। कई बार मिलने, बात करने के बाद विचार नहीं मिलते हैं, तो आपसी सहमति से वे अलग हो जाते हैं। सामज


उसको स्वीकार करता है। सहमति जता कर कहता है कि, ‘अच्छा है विवाह से पहले ही पता चल गया।’ जब माता-पिता की रजामंदी है, तो ठीक लेकिन जब बच्चे खुद से आगे बढ़ रहे हैं तो गलत। कहीं हमें युवाओं से भय


तो नहीं? कहीं हमें अपनी सत्ता हिलती हुई तो नहीं लग रही? टटोलना यह भी है कि आयातित त्योहारों में हमने ‘मदर्स डे’, ‘फादर्स डे’ आदि तो हमने स्वीकार कर ही लिए हैं। हम समझ गए हैं कि ये आज के समय


की जरूरत हैं। आज संयुक्त परिवार नहीं हैं। बच्चे माता-पिता से दूर रहते हैं। ऐसे में किसी खास दिन पर प्रेम का खास इजहार उसे विशेष बना देता है। एक मां होने के नाते मैं इसे स्वयं महसूस भी करती


हूं। फिर प्रेम दिवस से परहेज क्यों? आप इससे सहमत/ असहमत हो सकते हैं, पर जो युवा प्रेम करते हैं वे इस खास दिन को कुछ खास अहसासों से भर देना चाहते हैं। उनके स्मृति कोष में मधुर यादें जुड़ जाएं,


इसमें हर्ज ही क्या है। अगर विरोध करना है, तो बाजारवाद का विरोध करें, जिसने ‘वैलेंटाइन डे’ को ही नहीं हर त्योहार को अपनी गिरफ्त में लिया है। हम दीपावली, होली, यहां तक की रक्षाबंधन में भी


बिजली की झालरों से, महंगे तोहफों से, रंगीन पैकिंग से घर को और रिश्तों को भरने का प्रयास करते हैं। वही हाल वैलेंटाइन डे का भी है। जब प्रेम की मधुर अभिव्यक्ति महंगे तोहफों में अपना वजूद ढूंढ़ने


लगती है। पर आज पूरा विश्व बाजार बन चुका है। हम हर रोज इनकी गिरफ्त में हैं, तो खास दिवस को बाजार नहीं भुनाएगा ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है। हां, निजी नियंत्रण हो सकता है। वह हमारे अपने हाथ में


है। आयातित त्योहार के नाम पर इसका विरोध करने से पहले अपनी पुरातन संस्कृति को समझें, विवाह व्यवस्था की आज की जरूरतों और स्वरूप को समझें और बाजारवाद के अनदेखे हाथों को भी। निश्चित रूप से तब


आप कोई विरोध नहीं कर पाएंगे। वैसे भी विरोध करने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि प्रेम स्वतंत्र फूल है, जो हर हाल में खिलेगा। _वंदना बाजपेयी_