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2019 के लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद ने हार के कारणों की पड़ताल करने के लिए अपने तीन नेताओं की एक कमेटी बनाई थी। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट विधानमंडल दल
की नेता राबड़ी देवी को सौंप दिया है। हार का ठीकरा जिला इकाइयों पर फोड़ा गया है और कहा गया है कि पार्टी नेताओं की बात न तो बूथ लेवल तक पहुंचाई गई और न ही संगठन एकजुट रखा गया। इस रिपोर्ट पर
पार्टी 6 जुलाई को कार्यकारिणी की बैठक में गहन विमर्श करेगी। बता दें कि 5 जुलाई को राजद का स्थापना दिवस है। पार्टी के 22 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब लोकसभा में एक भी सांसद नहीं
है। हालांकि, राज्य सभा में पार्टी के पांच सांसद हैं। इससे पहले 2014 और 2009 में लोकसभा में राजद के चार-चार सांसद थे जबकि 2004 में पार्टी ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया था। तब राजद के 22 सांसद
चुने गए थे। 1999 में राजद के 7 जबकि स्थापना के अगले साल ही 1998 में 17 सांसद चुनकर पहुंचे थे। 2004 में केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सिंह की सरकार में राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को रेल मंत्री
बनाया गया था। लालू समेत मनमोहन मंत्रिपरिषद में राजद के कुल नौ मंत्री थे लेकिन करीब डेढ़ दशक बाद पार्टी का अस्तित्व संकट में है। 2019 में राजद बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से जीरो पर आउट हो
गई। सीएसडीएस-लोकनीति की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में बिहार में 64 फीसदी यादवों ने राजद को वोट किया था जो 2019 में घटकर 55 फीसदी रह गया। यानी पांच साल में 9 फीसदी यादव वोट बैंक राजद से छिटक
गया। यह आंकड़ा सालाना करीब दो फीसदी होता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 21 फीसदी यादव मतदाताओं ने एनडीए को जबकि 24 फीसदी ने अन्य को वोट किया है। राजद के माई समीकरण के दूसरे घटक यानी मुस्लिमों
ने हालांकि तुलनात्मक दृष्टि से अपना वोट राजद को ही दिया। आंकड़ों के मुताबिक 77 फीसदी मुस्लिमों ने राजद की अगुवाई वाले यूपीए गठबंधन को जबकि मात्र 6 फीसदी ने जेडीयू की वजह से एनडीए को और करीब
17 फीसदी ने अन्य को वोट दिया। 2019 का लोकसभा चुनाव ऐसा पहला चुनाव था जो राजद अध्यक्ष लालू यादव की गैर मौजूदगी में लड़ा गया। कहा जाता है कि माई समीकरण (यादव-14 फीसदी और मुस्लिम 16 फीसदी) के
कुल 30 फीसदी वोट पर लालू अकेले राज करते थे और यही वजह थी कि राजद स्थापना काल से ही इनके बलबूते चुनावों में कमोबेश प्रदर्शन करती रही थी लेकिन राजद के नए नेतृत्व पर यादवों का भरोसा डगमगाने लगा
है। इसकी एक प्रमुख वजह यह हो सकती है कि जहां राजद में एक परिवार के नेताओं का ही बोलबाला है, वहीं दूसरी तरफ बीजेपी और जेडीयू ने कई क्षेत्रीय यादव नेताओं को न केवल मौका और तरजीह दिया है,
बल्कि उन्हें जीत की जिम्मेदारी और अवसर भी मुहैया कराया है। रामकृपाल यादव इसके नायाब उदाहरण हैं जिन्होंने लालू यादव की बड़ी बेटी मीसा भारती को लगातार दूसरी बार पाटलिपुत्र सीट से हराया है।
बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय भी इन्ही में शामिल हैं जिन्हें केंद्र में मंत्री बनाया गया है। हालांकि, विधान सभा चुनाव में राजनीतिक मिजाज बदलने के आसार हैं। माना जा रहा है कि 2020 में
होने वाले बिहार विधान सभा चुनाव में माई समीकरण और खासकर यादव समुदाय फिर से लालू खेमे के लिए लामबंद हो सकता है लेकिन उससे पहले लालू परिवार के भीतर चल रही उठापटक का शांत होना जरूरी है। वर्ना
यही समीकरण और पैटर्न रहने पर राजद को फिर खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।