संपादकीयः लाचार मरीज

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मध्यप्रदेश में जूनियर डॉक्टरों की बेमियादी हड़ताल से पैदा स्थिति पहले ही चिंताजनक थी, पर उसके समाधान के लिए कोई सकारात्मक रास्ता निकालने की कोशिश नहीं हुई। सरकार ने एस्मा यानी आवश्यक सेवा


अनुरक्षण कानून लागू कर दिया और बीस जूनियर डॉक्टरों को बर्खास्त करके एक तरह से यह संदेश देने की कोशिश की कि वह इस मसले पर नरमी नहीं बरतेगी। मगर हड़ताल पर गए डॉक्टरों पर इसका कोई खास असर नहीं


हुआ। मंगलवार को भोपाल, इंदौर सहित पांच शासकीय मेडिकल कॉलेजों के लगभग बारह सौ जूनियर डॉक्टरों ने सामूहिक इस्तीफे की घोषणा कर दी। उसके बाद स्थिति ज्यादा बिगड़ने की आशंका पैदा हो गई है। हालांकि


बुधवार को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने राज्य में जूनियर डॉक्टरों और नर्सों की हड़ताल को अवैध घोषित करते हुए आदेश दिया कि सभी डॉक्टर हड़ताल खत्म कर तुरंत काम पर लौटें। पर डॉक्टरों ने जिस तरह सामूहिक


इस्तीफा दिया है, उससे यही लगता है कि वे अपनी लड़ाई को लेकर आर-पार की मुद्रा में हैं। गौरतलब है कि जूनियर डॉक्टर मध्यप्रदेश मेडिकल यूनिवर्सिटी की ओर से तय फीस कम करने और स्नातकोत्तर के बाद


ग्रामीण सेवा बॉण्ड के तहत दिए जा रहे मानदेय को छत्तीस हजार रुपए से बढ़ा कर पैंसठ हजार रुपए करने की मांग कर रहे हैं। जाहिर है, यह स्थिति जूनियर डॉक्टरों की मांग और उस पर सरकार के रुख की वजह से


जटिल हो चुकी है। मगर इसका खमियाजा उन मरीजों को भुगतना पड़ रहा है, जो दूरदराज इलाकों से शहरों के सरकारी अस्पतालों में आते हैं। हालात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि मंगलवार को डॉक्टरों की


हड़ताल के कारण राज्य के सरकारी अस्पतालों में दो सौ से ज्यादा ऑपरेशन टालने पड़े और बाकी मरीजों को भी इलाज नहीं मिल पा रहा है। इस संकट से निपटने के लिए सरकार ने सात नए मेडिकल कॉलेजों में


पदस्थापित ढाई सौ सहायक प्रोफेसरों की तैनाती आपातकालीन सेवाओं में कर दी है। स्वास्थ्य सुविधाओं पर ज्यादा बुरा असर न पड़े, इसके लिए नर्सों और पैरामेडिकल कर्मचारियों को भी तैनात कर दिया है। पर


सवाल है कि हड़ताल से जैसी समस्या खड़ी हुई है, उससे क्या इस तात्कालिक व्यवस्था के जरिए निपटा जा सकता है। दूसरी ओर, क्या हड़ताल पर गए डॉक्टरों को इस बात का अहसास है कि उनके काम पर न जाने की वजह


से मरीजों पर क्या बीत रही होगी? खासकर जिन मरीजों को आपात चिकित्सा की जरूरत है, अगर किसी स्थिति में उनकी जान चली जाती है तो उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? यह सही है कि इस समस्या का दीर्घकालिक


समाधान तलाशना सरकार का भी दायित्व है। डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे मध्यप्रदेश में यह समस्या अगले दस साल तक बनी रह सकती है। वजह यह है कि राज्य में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या


महज अठारह है। यह संख्या दूसरे राज्यों के मुकाबले आधी या उससे भी कम है। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सरकारी अस्पतालों में इलाज के लिए आने वाले मरीज आमतौर पर कमजोर पृष्ठभूमि से होते हैं। अगर


डॉक्टरों की हड़ताल या किसी वजह से उन्हें सही इलाज नहीं मिल पाता, तो ऐसे बहुत सारे लोग होते हैं, जो निजी अस्पतालों का खर्च उठाने की स्थिति में नहीं होते। सो, हड़ताल पर गए डॉक्टरों के साथ-साथ


सरकार को भी इस मसले पर संवेदनशील होकर गंभीरता से सोचने और कोई ठोस समाधान निकालने की जरूरत है।