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पांच साल पहले अपने घर में हमने यह तय किया कि टीवी बंद कर देते हैं। बच्चे ने दो-तीन दिन तो नाराजगी जाहिर की। मगर जब हमने उसे कई तरह की कहानियों की किताबें उपलब्ध करा दीं और उसके मनोरंजन के
वैकल्पिक इंतजाम कर दिए तो धीरे-धीरे उसे अच्छा लगने लगा। टीवी बंद करने के पीछे दो प्रमुख कारण थे। एक तो बच्चे को टीवी की लत छुड़ा कर किताब पढ़ने की ओर ले जाना और दूसरा अपने घर के भीतर ही खत्म
हो गए संवाद को फिर से बढ़ाना। जब टीवी पूरी तरह बंद हो गया तो घर में काफी शांति महसूस होने लगी। हम आपस में ज्यादा बातें करने लगे और पति-पत्नी दफ्तर से घर लौट कर भी कुछ पढ़ने-लिखने लगे। भजन, गजल
और भोजपुरी गाने सुनने के लिए समय मिलने लगा। टहलने, गांव-घर पर फोन करने का मौका मिलने लगा। जिन दूसरे घरों में टीवी चलता है, वहां से उठने वाले शोर का अंदाजा होने लगा। यानी हमारा घर भी इतना ही
शोर पैदा करता था और आसपास के बच्चों की पढ़ाई से लेकर दूसरे शांत मिजाज के लोगों को बाधित करता था, जिसका पता हमें कभी नहीं चल पाया था। आज टेलीविजन एक अद्भुत चीज बन गया है। भारत में टीवी की
शुरुआत 1959 में हुई और 1982 के एशियाई खेलों और बाद में ‘महाभारत’ और ‘रामायण’ धारावाहिकों ने टीवी के प्रसार को गति दी। अस्सी के दशक में जब टीवी का चलन बढ़ रहा था तो शुरुआती दिनों में मोहल्ला
और गांव उन घरों के आसपास जमा होता था, जहां टीवी था। मीडिया का शुरुआती उद्देश्य शिक्षा, मनोरंजन और सूचना समझा गया था और उसी आधार पर कार्यक्रम बनाए गए थे। स्कूल टीवी और ‘एडुसेट’ की भी शुरुआत
की गई थी। लेकिन ये शिक्षा आधारित कार्यक्रम लोकप्रियता के पैमाने पर पीछे रह गए। टीवी को हम रिमोट से कंट्रोल करते-करते आज खुद टीवी से कंट्रोल होने लगे हैं। रविवार की शाम दूरदर्शन पर आने वाली
फिल्मों का सबको इंतजार रहता था और उसी माध्यम से कुछ कलात्मक फिल्मों को देखने का मौका भी मिलता था। अब वह मौका मुख्यधारा के चैनलों पर नहीं मिलता है। किर्क जॉनसन ने नब्बे के दशक में महाराष्ट्र
के अमरावती जिले में टीवी और सामाजिक परिवर्तन को लेकर एक शोध किया था। उन्होंने कुछ बहुत ही मजेदार परिवर्तन अपने शोध में दर्ज किए हैं। जॉनसन ने बताया कि दहेज को कानूनी अपराध बताने के क्रम में
टीवी खुद दहेज का एक अनिवार्य अंग बन गया। गांव में लोगों की दिनचर्या बदल गई और रात देर तक जागना और सुबह देर तक सोने की आदत बन गई। सामाजिक रिश्तों में भी बदलाव आया और सास, बहु, ससुर, जेठ सब एक
साथ धारावाहिक और उनके बीच में आने वाले विज्ञापन देखने लगे। दरअसल, अब हमारे टीवी का रिमोट हमारे हाथ से छिन कर मीडिया हाउसों के हाथ में चला गया है। मीडिया ‘डिपेंडेंसी थ्योरी’ यानी निर्भरता के
सिद्धांत, श्रोता और सामाजिक व्यवस्था के अंतर्संबंधों का विश्लेषण करता है। समाचार माध्यमों और खासतौर पर टीवी मीडिया पर जब दर्शकों की निर्भरता बढ़ जाती है तो मीडिया अपना एजेंडा आगे कर देता है।
सामाजिक संबंधों और वैकल्पिक विचारों से कटा हुआ दर्शक बहुत सारे मसलों से संबंधित अपने निर्णय के लिए टीवी पर निर्भर होता जा रहा है। अब जब पांच साल के बाद देश से बाहर आकर कभी-कभार जब हम टीवी
और भारत के कुछ चैनलों के बारे में पढ़ते हैं तो अपने निर्णय पर संतोष होता है। टीवी एंकर चीख रहे हैं, पार्टी के प्रवक्ता चिल्ला रहे हैं, ‘मजूर’ और ‘हजूर’, सब अपने चैनलों को जनता का हितैषी बता
रहे हैं, व्यवसाय का जिक्र कम, दूसरों को नैतिकता का चूर्ण ज्यादा बांट रहे हैं। धीरे-धीरे टीवी इतना लोकप्रिय हो गया है कि यह हमारी भाषा, विचार, व्यवहार, निर्णय सब कुछ तय करने लगा है। आज टीवी
दर्शकों की भूमिका, कूरियर एजेंट की तरह, फुटेज को शेयर करने और चैनलों के पक्ष और विपक्ष में नारा लगाने, गाली देने और एंकर को वोट देने की रह गई है। अपने सोचने और तार्किक निर्णय लेने की क्षमता
हम भूल रहे हैं। हमारे पास चूंकि अपना एजेंडा नहीं है तो मीडिया के एजेंडे में फंस कर समर्थन और विरोध का नारा लगा रहे हैं। युद्ध की शब्दावली और हिंसा का सीधा प्रसारण हमारी आक्रामकता को बढ़ा रहे
हैं। मनोरंजन, ज्ञान और हास्य गायब है, बाकी हम सब खुद समझदार हैं।