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महामारी ने दूसरी लहर में अपने पैर पसारने मे पहली लहर से ज्यादा तेजी कर दी है। यह एक खतरे की घंटी मानी जा रही है। पूरे एक साल से कोरोना से लड़ते हुए ऐसा लगने लगा था कि हमने कोरोना को हरा दिया
है, लेकिन कई स्तरों पर की गई बड़ी लापरवाही से इसकी रफ्तार फिर बढ़ रही है। हालांकि एक साल से काफी चीजें बुरी तरह प्रभावित हैं। अर्थव्यवस्था में मंदी के हालात, महंगाई, बेरोजगारी का बढ़ना,
डीजल-पेट्रोल की कीमतों में इजाफा भी हुआ, पूर्णबंदी के बाद चरणबद्ध तरीके से सब कुछ खुल गए। लेकिन एक गहरा प्रभाव विद्यार्थियों पर हुआ, जिनके लिए स्कूल, कॉलेज, परिसर, संस्थान कक्षा की दृष्टि से
बंद है। कुछ समय के लिए स्कूल में कम विद्यर्थियों की कक्षा चलनी भी शुरू हुई, लेकिन अब वही हालात हो गए हैं। विद्यार्थियों के लिए आॅनलाइन कक्षा लेना उनके लिए तो ठीक है, जिन तक इंटरनेट की
सुविधाएं पहुंचे, लेकिन मुश्किल उन बच्चों को है जिनकी इंटरनेट तक पहुंच नहीं है या स्मार्टफोन भी नहीं खरीद सकते। मेरे आसपास सी कई ऐसे बच्चे हैं जो पूरे दिन गलियारों मे खेलते रहते हैं और उनके
अभिभावक उन पर ध्यन नहीं दे पाते। शायद वे अपने श्रम कार्य में इतना व्यस्त रहते हैं कि पढ़ाई से संबंधित बातें कर नहीं पाते। आॅनलाइन कक्षा की पहुंच आज भी उन पहाड़ी इलाकों तक नहीं है, क्योंकि वहां
इंटरनेट नेटवर्क की पहुंच नहीं है। इस कारण उन्हें घंटों का सफर तय करने के बाद ऐसे स्थान पर पहुंचना पड़ता है, जहां वे आॅनलाइन पढ़ाई कर सकें। कोरोना के कारण स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई बाधित है। इसका
भारी नुक्सान विद्यार्थियों की उठाना पड़ रहा है। आॅनलाइन शिक्षा तक पहुंच मुश्किल से चालीस फीसद विद्यार्थियों की है। आॅनलाइन शिक्षा से घर बैठे कक्षा तो मिल जाती है, लेकिन इसके कारण बच्चों को
घंटों लैपटॉप या स्मार्टफोन के सामने बैठना पड़ता है। इस कारण उनकी कमर दर्द, आंखों में दर्द, आंख का कमजोर होना, इयरफोन काफी समय तक कान में लगा कर रखने से कई तरह की परेशानी झेलनी पड़ रही है। एक
महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि जिस प्रकार विद्यार्थी रोजाना अपने स्कूल या कॉलेज तक का सफर तय करता और अन्य साथियों के संग उनका जो विचारों को आदान-प्रदान और समूह विचार से उभरती प्रतिभा में कमी
होने लगी है। आॅनलाइन परीक्षा या ‘ओबीई’ के जरिए दिल्ली विश्वविद्यालय में परीक्षा बीते सेमेस्टर हुई। इसके बारे में हम सभी जानते हैं कि परीक्षा में देख कर लिखने से विद्यार्थी को कोई खासा लाभ
नहीं होगा, बल्कि विद्यार्थी की प्रतिभा में कमी उनकी योग्यता और याद करने की क्षमता घटने लगेगी, जो हमें प्रतियोगी परीक्षा में निखार नहीं पाएंगे। ’मोनिका, नई दिल्ली</p> अव्यवस्था के आदी
कई बार लगता है कि देश की जनता अव्यवस्था में रहने के लिए आदी हो चुकी है। कोई भी अव्यवस्था उनके मन के अंदर किसी किस्म के अतिरिक्त भाव पैदा नहीं करती है।लोग उसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं।
उसके साथ जीने की आदत डाल लेते हैं। शायद इसीलिए कोई हैरान नहीं है या उद्वेलित नहीं है और न ही सोच रहा है कि इस समय देश में कैसी अव्यवस्था फैली हुई है। महामारी की एक और लहर चल रही है। उसके नाम
पर इस देश के हुक्मरानों ने जनता को कैसे-कैसे बेवकूफ बनाया, यह सर्वविदित है। एक साल पहले जब कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर के बारे में बताया जा रहा था तो अब फिर इसे दूसरी लहर का नाम क्यों दिया
जा रहा है। पिछले साल की तुलना में इस बार एक दिन में सवा लाख से डेढ़ लाख मामले आ रहे। मरने वालों की संख्या भी बढ़ रही है। आंकड़े भयावह दिख रहे हैं। अब तक कोरोना के टीके काफी संख्या में लगाए गए
हैं, लेकिन यह लक्ष्य से कम है। ऊपर से कोरोना टीका को उत्सव की तरह मनाने की सलाह जनता को दी जा रही है। कुछ लोग दुखी जरूर हो रहे हैं कि अच्छा नहीं हो रहा है। लेकिन अधिकतर लोगों में न कोई शोर
है और न ही बेचैनी। उनको लगता है उनका जीवन ऐसे ही चल रहा है जैसे कल चल रहा था तो इस देश की जनता के लिए वर्तमान नेतृत्व ही सही है। हम एक विचित्र दौर में जी रहे हैं, जिसमें जनता की चुनी हुई
सरकार न बेरोजगारों की सुन रही है, न युवाओं की और न ही मजबूरों की। देश का नौजवान सड़क पर है, एक साल से स्कूल-कॉलेज बंद हैं, किसान सड़कों पर हैं। लोगों के पास नौकरी नहीं है। मंहगाई बेलगाम है।
कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जो सबसे भयावह है वह यह कि पूरा विपक्ष के सभी केंद्र और मोर्चे इस पर विचित्र तरीके से खामोश है। ’जयप्रकाश नवीन, नालंदा, बिहार</p> पुलिस का
चेहरा कोरोना महामारी के बीच खंडवा जिले में पुलिस का बर्बर चेहरा सामने आया है। पुलिस ने कोरोना से बचाव के नाम पर एक व्यक्ति और उसके परिजनों को लाठियों से बेरहमी से पीटा। इससे संबंधित खबरें भी
आईं और वीडियो भी वायरल हुआ। बीच-बचाव करते हुए रहम की भीख मांग रहे माता-पिता को देख कर भी पुलिस पर कोई फर्क नहीं पड़ा। इस घटना ने पुलिस के अमानवीय व्यवहार को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
संक्रमित मरीज के प्रति हमदर्दी दिखने की बजाय उन पर लाठियां बरसाने का अधिकार पुलिस को किसने दिया? अब क्या पुलिस लाठियों से करेगी कोरोना का इलाज? ऐसे पुलिसकर्मियों को जब तक इस पर सख्त कार्रवाई
का सामना नहीं करना पडेगा, तब तक इस तरह की हरकतें नहीं रुकेंगी। कुछ इसी तरह का वाकया में देखने को मिला था, जहां मास्क नहीं लगाने पर दो पुलिसकर्मियों ने बीच चौराहे पर एक आॅटो रिक्शा चालक को
बड़ी बेरहमी से पिटा था। रिक्शा चालक का पुत्र बार-बार पुलिस वालों से पिता को न मारने की गुहार लगा रहा था, लेकिन बेरहम पुलिसकर्मियों का दिल नहीं पसीजा। इस मामले में दोनों पुलिस कर्मी को सस्पेंड
कर दिया था। लेकिन बच्चे के मन में पुलिस के प्रति जो गुस्सा पनपा है, उसकी जो छवि बन गई, उसे कैसे दूर किया जाएगा! पुलिसकर्मियों के द्वारा आम जनमानस पर बर्बरता की खबरें लगभग रोज ही प्रकाशित
होती है। अब वक्त आ चुका है कि नागरिकों पर जुल्म करने वाली इस प्रवृत्ति पर रोक लगे। ’गौतम एसआर, खंडवा, मप्र