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डॉ. संजीव मिश्र 73 साल पहले, 30 जनवरी को हमारे राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी को एक राष्ट्रद्रोही की गोली लगी थी। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी होने का दावा करने
वाले और उनके नाम से जुड़कर राजनीति करने वाले लोग बार-बार सत्ता में आते रहे। यही नहीं, जिन पर गांधी से वैचारिक रूप से दूर होने के आरोप लगे, वे भी सत्ता में आए तो गांधी के सपनों से जुड़ने की
बातें करते रहे। गांधी के ग्राम स्वराज की बातें तो खूब हुईं किन्तु उनके सपनों को पूरा करने के सार्थक प्रयास नहीं हुए। देखा जाए तो बीते 73 वर्षों में कदम-कदम पर बापू से छल हुआ है, उनके सपनों
की हत्या हुई है। उनकी परिकल्पनाओं को पलीता लगाया गया और उनकी अवधारणाओं के साथ मजाक हुआ। बापू की मौत के बाद देश की तीन पीढ़ियां युवा हो चुकी हैं। उन्हें बार-बार बापू के सपने याद दिलाए गए
किन्तु इसी दौरान लगातार उनके सपने रौंदे जाते रहे। बापू के सपने याद दिलाने वालों ने उनके सपनों की हत्या रोकने के कोई कारगर प्रयास नहीं किये। आज भी यह सवाल मुंह बाए खड़ा है कि सरकारें तो
आती-जाती रहेंगी, किन्तु बापू कब तक छले जाते रहेंगे? कब तक उनके सपने टूटते रहेंगे? बापू के सपनों का ग्राम स्वराज आज तक मूर्त रूप हीं ले सका, यह अलग बात है कि इस दिशा में तरह-तरह की घोषणाएं
बार-बार की जाती रहीं। महात्मा गांधी ने स्वराज शब्द को वैदिक व पवित्र करार दिया था। 19 मार्च 1931 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में बापू कहते हैं, ‘स्वराज का अर्थ आत्म शासन व आत्म संयम है।
अंग्रेजी शब्द इंडेपेंडेंस अक्सर सब प्रकार की मर्यादाओं से मुक्त निरंकुश आजादी व स्वच्छंदता का अर्थ देता है, यह अर्थ स्वराज में नहीं है’। इसके विपरीत बीते सत्तर वर्षों में स्वराज के मायने ही
बदल दिये गए हैं। आजादी के नाम पर मनमानी शुरू हो गयी। दुर्भाग्यवश आजादी के बापूभाव को समझने की कोशिश तक नहीं हुई और स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता पर अंकुश के पुख्ता उपाय नहीं किये जा सके।
यही नहीं, सत्ता में बैठे लोगों ने बापू के सच्चे स्वराज के भाव को बार-बार कुचला है। कई बार तो लगता है, बापू को स्वराज के नाम पर अराजकता का डर भी था। 29 जनवरी 1925 को ‘नवजीवन’ में उन्होंने
लिखा, ‘सच्चा स्वराज थोड़े लोगों द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग की स्थिति में उसका प्रतिकार करने की क्षमता प्राप्त करके ही हासिल किया जा सकता है’। यह दुखद व
दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा, कि आजादी के सात दशक बाद सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिकार करने पर लाठियां, आंसू गैस के गोले और कई बार गोलियां तक मिलती हैं और ऐसे हर समय पर याद आते हैं बापू और उनके
दिखते हैं उनके स्वराज संबंधी टूटते सपने। उत्तराखंड आंदोलन के दौरान चली लाठियां हों, दिल्ली में बलात्कार के खिलाफ सड़क पर उतरी तरुणाई पर हुई पानी की बौछार हो या उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ
में आंदोलित शिक्षकों व शिक्षामित्रों पर हुआ बल प्रयोग हो, यह सबकुछ बापू के सपनों का स्वराज तो नहीं है। इस तरह के हर मौके पर सत्ता प्रतिष्ठान ने बापू के सपने चकनाचूर करने में कोई कोर-कसर नहीं
छोड़ी है। बापू का स्वराज जाति-धर्म से ऊपर उठने की बात करता है। 1 मई 1930 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में उन्होंने कहा, ‘मेरे… हमारे… अपनों के स्वराज में जाति व धर्म के भेद का कोई स्थान
नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों व धनवानों का एकाधिकार नहीं होगा। वह स्वराज सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा’। यहां विचारणीय बिन्दु यह है कि क्या हम ऐसा स्वराज स्थापित कर सके हैं? जाति के नाम
पर वोट बैंक बनाने की मशक्कत व धर्म के नाम वोट मांगने को लगातार मिलता प्रश्रय हमें बापू के टूटते सपनों से सीधे जोड़ता है। इसे राजनीतिक दलों की बेशर्मी की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि चुनावों से
पहले लोकसभा या विधानसभा क्षेत्रवार धर्म व जाति के आंकड़े जुटाकर उसके अनुसार टिकट वितरण किया जाता है। प्रत्याशियों का सामाजिक योगदान न देखकर जातीय समीकरण देखे जाते हैं। धार्मिक ध्रुवीकरण की
कोई कोशिश बाकी नहीं रखी जाती और सत्ता में आने के लिए धार्मिक व जातीय आधार पर समीकरण बनाए जाते हैं। बापू चाहते थे कि स्वराज में धनवानों का एकाधिकार न हो, किन्तु आज स्थितियां बिल्कुल विपरीत
हैं। अब तो तमाम औद्योगिक घराने न सिर्फ राजनीतिक दलों से सत्ता संबंधी समझौते करते हैं, बल्कि अपने प्रत्याशी तक मैदान में उतारते हैं। वे राजनीति की दिशा व दशा तय करते हैं। इनके अलावा चुनाव जीत
कर आने के बाद जिस तरह जनप्रतिनिधियों की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, उससे भी स्पष्ट है कि सत्ता प्रतिष्ठान में धन-संपदा किस तरह प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर धनवानों का अधिपत्य स्थापित कर
रही है। साथ ही लोकतंत्र में चुनाव जरूरी है और मौजूदा चुनावी व्यवस्था धनवानों को ही राजनीति के शीर्ष पर ले जाने का पथ प्रशस्त करती है। चुनाव लड़ना इतना महंगा हो गया है कि आम व गरीब आदमी तो इस
बारे में सोच ही नहीं सकता। बापू चाहते थे कि आम व गरीब आदमी को वे सभी सुविधाएं मिलनी चाहिए, जिनका प्रयोग अमीर आदमी करते हैं। 26 मार्च 1931 को ‘यंग इंडिया’ में प्रकाशित लेख में बापू कहते हैं
कि पूर्ण स्वराज का अर्थ है नर कंकालों का उद्धार। पूर्ण स्वराज ऐसी स्थिति का द्योतक है, जिसमें गूंगे बोलने लगते हैं और लंगड़े चलने लगते हैं। पर सच में ऐसा कहां हो सका है? यहां महल बनाने के
लिए गरीबों की झोपड़ियों में आग लगाना आम बात है। हम उन्हें उजाड़ने के बाद आधारभूत सुविधाएं तक मुहैया कराना सुनिश्चित नहीं करते। बापू लंगड़ों के चलने की बात करते थे, यहां तो उनकी बैसाखियों तक
के सौदे हो जाते हैं। बापू लगातार शहरी धन के धोखे से लोगों को बचाने की बात करते रहे। 30 जून 1944 को ‘अमृत बाजार पत्रिका’ में बापू ने लिखा, ‘आज जरूरत इस बात की है कि ऊपर के लोग नीचे दबाने वाले
लोगों की पीठ से उतर जाएं। ऊंचे कहे जाने वाले लोगों का बोझ नीचे के लोगों को कुचल रहा है’। आजादी के पहले इस स्थिति का आंकलन करने वाले बापू के भारत में आजादी के बाद भी वैसी ही स्थितियां हैं।
आज भी गरीब मौका पाकर कुचला ही जाता है। बापू गांवों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के पक्षधर थे। 29 अगस्त 1935 को ‘हरिजन’ में प्रकाशित आलेख में उन्होंने लिखा, ‘अगर गांव नष्ट हो जाएं तो
हिन्दुस्तान भी नष्ट हो जाएगा। दुनिया से इसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा’। आजाद भारत के सत्ताधीशों ने बापू की इस अवधारणा को पूरी तरह भुला दिया है। विकास के नाम पर कहीं बांध बनाने के लिए तो
कहीं सड़क व शहर बढ़ाने के लिए गांव के गांव उजाड़ दिये जाते हैं। 26 दिसंबर 1929 को ‘यंग इंडिया’ में छपे लेख में बापू ने स्पष्ट लिखा था, ‘हमारे गांवों की सेवा करने से ही सच्चे स्वराज की
स्थापना होगी। अन्य सब प्रयास निरर्थक साबित होंगे’। इसके विपरीत हमारी स्वातंत्र्योत्तर प्रतिबद्धताओं में ग्राम विकास पीछे चला गया। ऊंची अट्टालिकाओं व एक्सप्रेस-वे आदि पर ध्यान देने के चक्कर
में हम खेतों की मेड़ व गांवों की पगडंडियां भुला बैठे। आज भी तमाम गांव ऐसे हैं जहां हमारे नीति निर्धारक सिर्फ वोट मांगने के लिए ही जाते हैं और चुनाव बाद उस ओर मुड़ कर नहीं देखते। महात्मा
गांधी चाहते थे कि देश में सबका दर्जा समान हो। 10 नवंबर 1946 को ‘हरिजन सेवक’ में उन्होंने लिखा, ‘हर व्यक्ति को अपने विकास और अपने जीवन को सफल बनाने के समान अवसर मिलने चाहिए। यदि अवसर दिये
जाएं तो हर आदमी समान रूप से अपना विकास कर सकता है’। दुर्भाग्य से आजादी के सात दशक से अधिक बीत जाने के बाद भी समान अवसरों वाली बात बेमानी ही लगती है। देश खांचों में विभाजित सा कर दिया गया है।
हम लड़ रहे हैं और लड़ाए जा रहे हैं। कोई जाति, तो कोई धर्म के नाम पर बांट रहा है तो कोई इन दोनों से ही डरा रहा है। बापू की हत्या तो आज से 73 साल पहले हुई थी, पर बापू के सपनों की हत्या तो हर
कदम पर 73 बार हो रही है। _(यहां व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)_